गाथा तेजाजी की: हळजोत्या और भाभी का भाता लाना

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जैसा कि पूर्व विदित है, वीर तेजाजी महाराज के पूर्वज मध्य भारत के मालवा क्षेत्र से चलकर मारवाड. में स्थापित हुए थे।
प्राचीन मध्य व उत्तर भारत में गुप्त व मौर्य जाटवंशो का गणतंत्रीय शासन हुआ करता था। (गुप्त जाटवंश से संबंधित थे जिसका इतिहास MP बोर्ड की पुस्तकों में वर्तमान वाकयदा जाट लिखकर पढाया जाता है। जबकि मौर्यवंश का अन्य जातियों ने अतिक्रमण कर लिया। कारण हमारा पढा लिखा ना होना तथा इतिहास की तरफ ध्यान न देना।)
ये गणराज्य सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रखने के लिए काम करते थे, ना कि राजस्व वसूली जैसे घिनौने कृत्य। यह देश सोने की चिड़ीया तभी कहलाता था। बाकी 12 वीं शताब्दी के बाद के कुछ देशी राजाओं को छौड़कर शेष ने तो इतिहास और देश को कलंक ही लगाया था।
गणराज्यों के काल में 'हळजोत्या' को लेकर एक महत्त्वपूर्ण व्यवस्था मान्य थी। जेठ आषाढ में पहली वर्षा होने पर हलजोत्या का दस्तूर गणपति द्वारा किया जाने की परंपरा थी। उसके बाद ही प्रजा द्वारा शुरू की जाती थी। एक महत्वपूर्ण शुभ व्यवस्था उस जमाने में और थी कि गणपति और उनका परिवार खुद के हाथ से उपजाया अन्न ही खाते थे। प्रजा से गणराज्य के सहयोग के लिए ही कुछ लिया जाता था। जो कि पंचों की देखरेख में गणराज्य पर ही खर्च होता था। इस काम में लेसमात्र भी बेईमानी ना थी।
(असली कलंक तो तुर्क आक्रमणों के पश्चात विलासिता में डूबे देशी भिखमंगे राजाओं ने लगाना शुरू किया जो भिखारियों की तरह किसानों का छीन के खाते थे तथा उनकी गाढी कमाई से बने महलों में रहते थे।)
तेजाजी कृषि विधियों के बहुत बड़े जानकार थे। अनाज को कतार में बोना, एक कतार से दूसरी कतार के बीच की दूरी, अनाज को बिखेर के नहीं बल्कि हल के साथ ही बीज को जमीन में दबाना, तथा एक बीघा में कितना अनाज बीजना जैसे विषयों के ज्ञाता थे। गौमूत्र तथा गौबर से खाद बना कृषि उपज बढाने जैसी तकनीकों को भी तेजाजी ने ईजाद किया था। तभी तो मारवाड़ में आज भी तेजाजी महाराज को 'कृषि के उपकारक अथवा कृषि वैज्ञानिक देवता' की उपाधि से नवाजा जाता है।
लगतो ही गाज्यो रे सावण भादवो।।
हळियो लेर खेतां, सिधावो कंवर तेजा रे।
थ्हारोड़ा बायोड़ा मोती नीपजे।।
बाजरियो बीजो थे खाबड़ खेत में।।'
(यह खाबड़ खेत आज भी खरनाळ में मौजूज है। और तेजाजी महाराज की अमर गाथा का यशोगान कर रहा है।)
लोककथाओं में बारह कोस की आवड़ी का उल्लेख आता है। कहते हैं कि गेण तालाब से खरनाळ तक का इलाका गणपति ताहड़ जी के अधिकार में था।
प्रभात में तेजाजी ने ऊमरा निकालना शुरू किया। दोपहर तक पूरी आवड़ी बीज डाली। नागौरी नस्ल के चुस्त बैल तो दूसरी तरफ बलिष्ठ भुजाओं के मालिक तेजाजी महाराज।
बारह बीघां री बीजी आवड़ी।।
काफी देर होने के पश्चात भाभी खाना लेकर आयी। तेजाजी भाभी को उलाहना देता हुआ कहता है कि यह भी कोई भात लेकर आने का समय है? भूख से मेरी और बैलों की क्या गति हो गई? आपको कुछ समझ में आता है या नहीं?
भाभी थां सूं विनती, कठै लगाई जेज।।'
मण को तो रांधियो खाटो खीचड़ो।।
लीलण बैल्यां खातर, दळियो ढाणो तेजा रे।
गौबर तो उठायो सारी गौर को।।
दौड़ी आई लार की लार कंवर तेजा रे।
गीगा न छौड्याई हीण्डे रोवतो।।
ऐड़ो कांई भूख भूख्याळो कंवर तेजा रे।
परणी न ले आवो बैठी बाप के।।
भाभी की बातें सीधी उनके कलेजे को लगी। अब तेजपाल ने ससुराल जाने का निश्चय कर ही लिया। बैलों को हरि घास में खुला छौड दिया। रास पिराणी भाभी को संभला दिया और हल को कंधे पर रखकर भाभी से बोले कि -
तेजो तो प्रभाते जासी सासरे।।
हरियो हरियो घासड़वो थे चरज्यो बैल्यां म्हारा रे।
पाणीड़ो पीज्यो थे गैण ताळाब रो।'
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अगले अंक तक जारी...
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लेखक-
Balveer Ghintala 'तेजाभक्त'
मकराना नागौर
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संत कान्हाराम
अध्यापक
सुरसुरा, अजमेर